चन्द्रवंश में हस्ति नाम प्रतापी राजा की संतान विकुंठन के पुत्र महाराजा अजमीढ़ थे । उनकी माता का नाम रानी सुदेवा था। त्रेता युग में जब परशुराम्जी क्षत्रियों से कुपित होकर उनका संहार कर रहे थे ऐसे आपातकाल में वन स्थित ॠषि-मुनियों ने उन्हें शरण दी। तत्कालीन महाराज अजमीढ़जी क्षत्रियों की दयनीय दशा देखकर चिंतित रहने लगे। उन्हें स्वर्णकला का ज्ञान था, उन्होंने राज्य का कार्यभार युवराज संवरण को सौंपा व वानप्रस्थ आश्रम पहुंच आश्रम स्थापित किया व भयातुर क्षत्रियों को संरक्षण दिया। स्वर्णकारी की शिक्षा देकर सम्मान प्रदान किया। जनकपुरी में शिवधनुष भंग होने के अवसर पर रामजी से परशुरामजी का वार्तालाप होने पर क्षत्रियों के प्रति क्रोध शांत हुआ। जो क्षत्रिय स्वर्णकला में पारंगत हो चुके थे, उन्होंने इस स्वर्णकला को अपनाए रखा व पीढ़ी दर पीढ़ी उन्नत करते हुए सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाया।
"श्री अजमीढ़ जी महाराज की जय"