Sunday 19 February 2012

Happy Maha-Shivratri.....!!





महा शिवरात्रि पर सभी मेम्बर और स्वर्णकार परिवार को हार्दिक शुभकामनायें और बधाई
  
देवाधिदेव महादेव की कृपा और आशीर्वाद हम सभी पर सदा बनी रहे  


हर हर महादेव....बम बम भोले....ॐ नमः शिवाय 

Friday 17 February 2012

हमारा समाज......!!



चन्द्रवंश में हस्ति नाम प्रतापी राजा की संतान विकुंठन के पुत्र महाराजा अजमीढ़ थे । उनकी माता का नाम रानी सुदेवा था। त्रेता युग में जब परशुराम्जी क्षत्रियों से कुपित होकर उनका संहार कर रहे थे ऐसे आपातकाल में वन स्थित ॠषि-मुनियों ने उन्हें शरण दी। तत्कालीन महाराज अजमीढ़जी क्षत्रियों की दयनीय दशा देखकर चिंतित रहने लगे। उन्हें स्वर्णकला का ज्ञान था, उन्होंने राज्य का कार्यभार युवराज संवरण को सौंपा व वानप्रस्थ आश्रम पहुंच आश्रम स्थापित किया व भयातुर क्षत्रियों को संरक्षण दिया। स्वर्णकारी की शिक्षा देकर सम्मान प्रदान किया। जनकपुरी में शिवधनुष भंग होने के अवसर पर रामजी से परशुरामजी का वार्तालाप होने पर क्षत्रियों के प्रति क्रोध शांत हुआ। जो क्षत्रिय स्वर्णकला में पारंगत हो चुके थे, उन्होंने इस स्वर्णकला को अपनाए रखा व पीढ़ी दर पीढ़ी उन्नत करते हुए सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाया। भौगोलिक स्थिति एवं क्षेत्रियता के कारण स्वर्णकार विभिन्न नामों से पुकारे जाते है।







1. देशवाली-मारवाड़ से बहुत वर्ष पहले दिल्ली एवं उत्तरप्रदेश में बसते है।

2. छेनगरिया- कई कारणों से ये बन्धु देशवालियों

3. पछादे- मुख्यत: दिल्ली एवं उत्तरप्रदेश में निवास करते है। देशवालियों से रस्म रिवाज,

खानपान न मिलने के कारण बेटी व्यवहार नहीं है।

4. निमाड़ी- मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में बसते हैं।

5. वनजारी- आंध्रप्रदेश एवं आसपास के क्षेत्रों में बसते हैं। ये लोग बन्जारों का काम करते हैं

एवं उन्हीं के साथ घुमक्क्ड़ जीवन बिताते हैं।

6. पजाबी- हमारे इन बन्धुओं में पंजाब के पहरावे के अतिरिक्त कोई अन्तर नहीं है।

7. भागलपुरी- बिहार के भागलपुर क्षेत्र में निवास करते हैं।

8. मारवाड़ी- मारवाड़ (राजस्थान) से धीरे धीरे देश के विभिन्न प्रान्तों में जाकर बस गये हैं। अपने

को मारवाड़ी हि कहते हैं।

9. ढ़ूढाडी- राजस्थान की जयपुर रियासत के निवासी।

10. शेखावटी- राजस्थान के बीकानेर से लगा क्षेत्र शेखावटी कहलाता है। यहां बसने वाले बन्धु

शेखावटी कहलाते हैं।

11. मालवी- मारवाड़ तथा मेवाड़ से आकर मालवा में बस गये।

12. माहोर- मथुरा, आगरा, करोली आदि स्थानों पर इस नाम से हमारे बन्धु बसते हैं।

Saturday 11 February 2012

महाराजा अजमीढ़जी का इतिहास........!!





किसी भी जाति के इतिहास में झांकने पर प्रकाश-पुंज की भांति जो महामानव दृष्टिगोचर होते है वे ही उस जाति के लिए संबल और प्रेरणा स्त्रोत हुआ करते है। जिन्हें वह जाति अपने पितृ-पुरुष के रुप में मानती है। इसी तरह मैढ़ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज श्री महाराजा अजमीढ़जी को अपना पितृ-पुरुष (आदि पुरुष) मानती है।

वैसे ऐतिहासिक जानकारी जो विभिन्न रुपों में विभिन्न जगहों पर उपलब्ध हुई है उसके आधार पर हम मैढ़ क्षत्रिय अपनी वंशबेल को भगवान विष्णु से जुड़ा हुआ पाते हैं। कहा गया है कि भगवान विष्णु के नाभि-कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी से अत्री और अत्रीजी की शुभ दृष्टि से चंद्र-सोम हुए। चंद्रवंश की 28वीं पीढ़ी में अजमीढ़जी पैदा हुए।

महाराजा अजमीढ़जी का जन्म त्रेतायुग के अन्त में हुआ था। मर्यादा पुरुषोत्तम के समकालीन ही नहीं अपितु उअन्के परम मित्र भी थे। उनके दादा महाराजा श्रीहस्ति थे जिन्होंने प्रसिद्ध हस्तिनापुर बसाया था। महाराजा हस्ति के पुत्र विकुंठन एवं दशाह राजकुमारी महारानी सुदेवा के गर्भ से महाराजा अजमीढ़जी का जन्म हुआ। इनके अनेक भाईयों में से पुरुमीढ़ और द्विमीढ़ विशेष प्रसिद्ध हुए। द्विमीढ़जी के वंश में मर्णान, कृतिमान, सत्य और धृति आदि प्रसिद्ध राजा हुए। पुरुमीढ़जी के कोई संतान नहीं हुई।

महाराज अजमीढ़ की दो रानियां थी सुमित और नलिनी। इनके चार पुत्र हुए बृहदिषु, ॠष, प्रियमेव और नील । इस प्रकार महाराजा अजमीढ़जी का वंश वृद्धिगत होता गया, अलग-अलग पुत्रों-पौत्र,प्रपोत्रों के नाम से गोत्र उपगोत्र चलते गये।

हस्तिनापुर के अतिरिक्त अभी के अजमेर के आसपास का क्षेत्र मैढ़ावर्त के नाम से महाराजा अजमीढ़जी ने राज्य के रुप में स्थापित क्या और वहां और कल्याणकारी कार्य किये।






Wednesday 1 February 2012

"पर-पीड़ा सम नहीं अधमाई"..........!!

मानवमात्र की मुक्ति का माध्यम सहानुभूति है | समवेदना के द्वारा हम कल्याण के मार्ग को प्रशस्त कर सकेंगे | विकलांगो को सहायता करे | निराधारो को आश्रय दे|
असहाय जनों को सहारा दे | बीमार व्यक्ति को यथासंभव मदत करे | कमजोर व्यक्ति को मदत करे |
मुसीबत में काम आये | दुखी लोगो को सुख पहुचाये | न जाने ,किस वेष में नारायण मिल जाये |
तभी तो ,सेवा को महंता संत-महात्मा ने बताई है | सेवा का फल सदेव मीठा होता है |
"पर-हित सरिस धर्मं नहीं भाई |
पर-पीड़ा सम नहीं अधमाई |"
सदेव ध्यान में रखे की हम अपने व्यवहार से किसी को भी कष्ट-पीड़ा न पहुचाये | यदि किसी को हमारे द्वारा थोडा भी दर्द हुआ तो वह नीचता होगी |
हो सके तो, कल्याणकारी और सामाजिक कार्य करते रहे | ऐसे काम करे ,जिससे हित हो |
भूल कर भी अपने आचरण से कष्ट न दे |
आईये, इस भावना को अपने व्यवहार में उतरने का प्रयास करे |
इति शुभम |








संपादक
वेदप्रकाश आर्य , सहदेव
मेढ़ सोनार जगत

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